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आपराधिक कानून

अर्नेश कुमार दिशानिर्देश

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 01-Aug-2023

मोहम्मद अश्फाक आलम बनाम झारखंड राज्य और अन्य

"केवल इसलिये कि गिरफ्तारी की जा सकती है, यह अनिवार्य नहीं है कि गिरफ्तारी की ही जानी चाहिये"

न्यायमूर्ति एस. रवींद्र भट, न्यायमूर्ति अरविंद कुमार

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति एस. रवींद्र भट्ट और न्यायमूर्ति अरविंद कुमार की पीठ ने कहा कि उच्च न्यायालय अर्नेश कुमार बनाम बिहार राज्य (2014) मामले में दिये गए दिशानिर्देशों का पालन करते हुए किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी के लिए आगामी मामलों में निर्देश देगा।

  • इन दिशानिर्देशों का पालन सत्र न्यायालयों और सात साल की अधिकतम जेल की सजा के प्रावधान वाले विभिन्न अपराधों से निपटने वाले अन्य सभी आपराधिक न्यायालयों द्वारा किया जाना चाहिये।
  • न्यायालय ने जमानत देने के लिये विवेक का उपयोग करने के संदर्भ में व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मूल्य पर जोर दिया है।
  • न्यायालय ने मोहम्मद अशफाक आलम बनाम झारखंड राज्य एवं अन्य मामले की सुनवाई करते हुए यह टिप्पणी की।

पृष्ठभूमि:

  • इस मामले में अपीलकर्ता का आरोप है कि प्रतिवादी-पत्नी खुश नहीं थी और उसके पिता उनके पारिवारिक मामलों में हस्तक्षेप करते थे तथा अपीलकर्ता एवं उसके परिवार पर दबाव डालते थे।
  • इसके चलते अपीलकर्ता के परिवार को धमकी देने के लिये पत्नी के परिवार के खिलाफ शिकायत दर्ज की गई।
  • बाद में अपीलकर्ता और उसके भाई तथा अन्य के खिलाफ भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) दहेज निषेध अधिनियम, 1961 की धारा 3 एवं 4 के तहत अपराध करने की शिकायत करते हुए एक FIR दर्ज की गई।
  • गिरफ्तारी की आशंका से अपीलकर्ता ने सत्र न्यायालय और बाद में उच्च न्यायालय में अग्रिम जमानत के लिये अर्जी दायर की।
  • इस दौरान अपीलकर्ता ने जांच में सहयोग किया, इसके बाद सत्र न्यायाधीश के समक्ष आरोप पत्र दायर किया गया।
    • सत्र न्यायालय और उच्ततम न्यायालय दोनों ने इस मामले की सुनवाई की।
  • जब यह मामला उच्चतम न्यायालय के समक्ष आया तो अपीलकर्ता ने तर्क दिया कि शक्ति (गिरफ्तार करने की) के अस्तित्व और इसका प्रयोग करने के औचित्य के बीच अंतर को हमेशा ध्यान में रखा जाना चाहिये।

न्यायालय की टिप्पणी:

  • न्यायालय ने कहा कि ऐसे मामलों में नियमित गिरफ्तारी रोकी जानी चाहिये जिसमें कथित अपराधों के लिये अधिकतम सात साल तक के कारावास की सजा हो सकती है।

अर्नेश कुमार बनाम बिहार राज्य (2014):

  • यह एक ऐतिहासिक निर्णय है जिसमें उच्चतम न्यायालय ने धारा भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 498-A के दुरुपयोग को स्वीकार किया।
  • न्यायालय ने कहा कि इस प्रावधान का असंतुष्ट पत्नियों द्वारा सुरक्षा कवच के बजाय एक हथियार के रूप में दुरुपयोग किया जाता है।
  • यह एक ऐतिहासिक फैसला है जिसमें उच्चतम न्यायालय ने पुलिस अधिकारियों को दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 41, 41A और अन्य आवश्यक मानदंडों के अनुसार गिरफ्तारी के निर्देश दिये।
  • न्यायालय ने कहा कि ये निर्देश न केवल भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 498-A या दहेज निषेध अधिनियम, 1961 की धारा 4 के तहत मामले पर लागू होंगे, बल्कि ऐसे मामलों पर भी लागू होंगे जिनमें अपराध के लिये कारावास की सजा हो सकती है, ऐसे कारावास की अवधि सात वर्ष से अधिक या सात वर्ष तक बढ़ सकती है, इसमें जुर्माने के साथ या उसके बिना भी सजा दी जा सकती है।
  • न्यायालय ने फैसला सुनाते हुए यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया कि पुलिस अधिकारी आरोपियों को अनावश्यक रूप से गिरफ्तार न करें और मजिस्ट्रेट आकस्मिक एवं बिना सोचे-समझे किसी व्यक्ति की हिरासत को अधिकृत न करें।
  • सतेंद्र कुमार अंतिल बनाम केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (2022) सहित कई मामलों में फैसले को दोहराया गया।

अर्नेश कुमार मामले में सुनाये गये फैसले में दिशानिर्देश:

न्यायालय द्वारा निम्नलिखित दिशानिर्देश निर्धारित किये गये थे:

  • सभी राज्य सरकारें अपने पुलिस अधिकारियों को निर्देश दें कि भारतीय दंड संहिता की धारा 498-A के तहत मामला दर्ज होने पर स्वचालित रूप से गिरफ्तारी न करें, बल्कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 41 के तहत निर्धारित मापदंडों के तहत गिरफ्तारी की आवश्यकता के बारे में खुद को संतुष्ट करें;
  • सभी पुलिस अधिकारियों को धारा 41(1)(b)(ii) के तहत निर्दिष्ट उप-खंडों वाली एक जांच सूची प्रदान की जानी चाहिये;
  • पुलिस अधिकारी, अभियुक्त को आगे की हिरासत के लिये मजिस्ट्रेट के समक्ष अग्रेषित/पेश करते समय विधिवत भरी हुई जांच सूची अग्रेषित करेगा और उन कारणों व सामग्रियों को प्रस्तुत करेगा जिनके कारण गिरफ्तारी की आवश्यकता हुई;
  • अभियुक्त की हिरासत को अधिकृत करते समय मजिस्ट्रेट उपरोक्त शर्तों के अनुसार पुलिस अधिकारी द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट का अवलोकन करेगा और उसकी संतुष्टि दर्ज करने के बाद ही मजिस्ट्रेट हिरासत को अधिकृत करेगा;
  • किसी आरोपी को गिरफ्तार न करने का निर्णय, मामले की शुरुआत की तारीख से दो सप्ताह के भीतर मजिस्ट्रेट को भेजा जाएगा, जिसकी एक प्रति मजिस्ट्रेट को दी जाएगी, जिसे ज़िले के पुलिस अधीक्षक द्वारा लिखित में दर्ज किये जाने वाले कारणों से बढ़ाया जा सकता है।
  • दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 41-A के संदर्भ में उपस्थिति की सूचना मामले की शुरुआत की तारीख से दो सप्ताह के भीतर आरोपी को दी जायेगी, जिसे लिखित रूप में दर्ज किये जाने वाले कारणों के लिये ज़िले के 10 पुलिस अधीक्षकों द्वारा बढ़ाया जा सकता है;
  • उपरोक्त निर्देशों का पालन करने में विफलता पर संबंधित पुलिस अधिकारियों को विभागीय कार्रवाई के लिये उत्तरदायी बनाने के अलावा, वे क्षेत्रीय क्षेत्राधिकार वाले उच्च न्यायालय के समक्ष स्थापित की जाने वाली न्यायालय की अवमानना के लिये दंडित किये जाने के लिये भी उत्तरदायी होंगे।
  • संबंधित न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा उपरोक्त कारण दर्ज किये बिना हिरासत को अधिकृत करने पर संबंधित उच्च न्यायालय द्वारा विभागीय कार्रवाई की जाएगी।